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________________ सीताहरण | २८१ - तुम क्यों चिन्ता करती हो? तुम्हें तो पटरानी बनाकर रखूंगा । -नहीं चाहिए मुझे पटरानी का पद । मुझे तो तू छोड़ दे । इसी में मैं प्रसन्न हूँ तिरस्कारपूर्ण वचनों से क्रोध तो आया उसे, परन्तु पी गया । मधुर स्वर में बोला — सुन्दरी ! मैं दास की तरह तुम्हारी सेवा करूंगा । एक बार तुम मुझे अपना पति स्वीकार तो कर लो । - पति तो मेरे श्रीराम हैं । मुझे किसी की सेवा की आवश्यकता नहीं है । – सीता ने क्रोधित होकर कहा । -क्रोध से कोई लाभ नहीं है, सुन्दरी ! मेरी इच्छा तुम्हें स्वीकार करनी ही पड़ेगी । - पापी ! तेरी यह दुष्ट इच्छा कभी पूरी नहीं हो सकेगी । : रावण सीता को फुसलाता रहा और सीता उसका तिरस्कार करती रही। इसी बीच विमान लंका में पहुँच गया । सारण आदि मन्त्री तथा अन्य सामन्तों ने रावण का स्वागत किया ! सीता ने उसी समय अभिग्रह लिया कि 'जब तक राम-लक्ष्मण का कुशल-समाचार नहीं मिलेगा मैं भोजन नहीं करूँगी ।' लकानगरी को पूर्व दिशा में स्थित देवरमण उद्यान में रावण की आज्ञा से सीता पहुंचा दी गई । रक्त अशोक वृक्ष के नीचे त्रिजटा तथा अन्य राक्षम नारियों का पहरा उस पर लगा दिया गया । रावण ने हर्षपूर्वक राजमहल में प्रवेश किया । ** - त्रिषष्टि शलाका ७५ -उत्तर पुराण ६८।१६१-२६८.
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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