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________________ २७४ | जैन कयामाला (राम-कथा) -तपस्वी का शिरच्छेद ? घोर पाप है यह तो। -हाँ और क्या मैं तुम्हारे पास व्यर्थ ही आई थी। जव मैं स्वयं उनके पास गई तो मुझे भी अपमानित कर दिया उन दोनों ने। क्रोध भड़क उठा रावण का । लंकेश की बहन का तिरस्कार उसके खून में उवाल आ गया, वोला -जिसके नाम से ही तीनों खण्ड काँपते हैं, उसी लंकेश की बहन का अपमान कर दिया उन वनवासियों ने ! वहुत बड़ी सेना है क्या उनके साथ ? -नहीं ! उन दोनों भाइयों के अतिरिक्त एक स्त्री और है, उनके साथ। -स्त्री? -विस्मित होकर पूछा रावण ने । -हाँ लंकेश अनुपम सुन्दरी है, वह ! मैंने तो ऐसी सुन्दर स्त्री और कहीं नहीं देखी। . -अच्छा ? -आश्चर्य बढ़ता जा रहा था लंकापति का। चन्द्रनखा ने भाई की काम भावना को भड़काते हुए कहा --मेरे विचार से तो उसको रूप-राशि के समक्ष यह तीन खण्ड का राज्य धूल का एक कण भी नहीं है । ऐसी सुन्दरी तो तुम्हारे महलों में ही शोभित हो सकती है। रावण विचारमन्न हो गया । चन्द्रनखा ने ही आगे कहा -मेरे पति खर चौदह हजार विद्याधरों के साथ अपने पुत्र का बदला चुकाने हेतु उन्हें मारने गये हैं। उन दोनों की मृत्यु तो निश्चित ही समझो और उनके मरते ही वह सुन्दरी अकेली ही रह जायेगी। लंकापति की आँखों में चमक आ गई। वह तुरन्त उठा और
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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