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________________ २७२ | जैन कथामाला (राम-कथा) दोनों ने मेरी कामयाचना को ठुकराया है । अतः सीता को अवश्य दण्ड मिलना चाहिए | जिस प्रकार मैं अपमानित हुई हैं उसी प्रकार वह भी अपमानित हो, तिरस्कृत हो, तभी मेरी हृदयज्वाला शान्त होगी ।' चन्द्रनखा नागिन की तरह बल खाने लगी । कुछ सोच-विचार कर उसने एक उपाय खोज ही निकाला - सीता को दुखी करने और अपने पति खर के पक्ष को सुदृढ़ करने का । वह पाताल लंका से लंका की ओर चल दी । -त्रिषष्टि शलाका, ७१५ - उत्तर पुराण पर्व ६८, श्लोक ८४-१६० स्थित शरभंग ऋषि के आश्रम में आये । वहाँ अनेक ऋषियों की प्रार्थना पर उन्होंने 'राक्षसों के वध की प्रतिज्ञा' की । इस पर जानकी ने सुझाया कि हम लोग तपस्वी वेश में हैं तो हमें ऋषियों के धर्म अर्थात अहिंसा धर्म का पालन करना चाहिए । अकारण हो किसी के प्रति शत्रुभाव रखना उचित नहीं । रामचन्द्र ने सीता को यह कहकर चुप कर दिया कि 'मैं अपनी प्रतिज्ञा-पालन के लिए अपने प्राण छोड़ सकता हूँ, तुम्हारा और लक्ष्मण का भी परित्याग कर सकता हूँ; किन्तु प्रतिज्ञा भंग करना असम्भव है । [ वाल्मीकि रामायण, अरण्यकाण्ड ]
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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