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________________ ( २६ ) (यह भी इसलिए मानना पड़ा कि वह अनेक चमत्कारी विद्याओं और दिव्यास्त्रों का स्वामी था और सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान ऋद्धि-सिद्धि वेदों में ही हैं) जब कि जैन परम्परा उसे हिंसक यज्ञों का विरोधी मानती है । वह एक पराक्रमी और कुशल शासक था। उसके चरित्र में अगर कोई दोष था तो सीता-हरण का किन्तु परस्त्री के साथ वह वलात्कार न करने की प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहता है। (६) वैदिक परम्परा का विभीपण सर्वगुणसम्पन्न है । भ्रातृद्रोह, जातिद्रोह, देशद्रोह तो कर सकता है किन्तु राम की भक्ति से विमुख नहीं होता। किन्तु जैन परम्परा में विभीषण को उत्कृष्ट भ्रातृप्रेमी दिखाया गया हैं । वह भाई की रक्षा के लिए हर सम्भव प्रयास करता है। वह न्यायप्रिय अवश्य है और केवल सीता को लौटाने के प्रश्न पर ही उसका रावण से मतभेद होता है । अन्तिम समय तक भी रावण की भलाई के लिए प्रयत्न करता है । (७) वैदिक परम्परा का कुम्भकर्ण महा आलसी, छह मास तक सोने वाला और एक दिन जागने वाला है जब कि जैन परम्परा उसे ऐसा नहीं मानती। (८) एक अन्य प्रमुख अन्तर हैं अयोध्या के राज्य पद का । जैन परम्परा के अनुसार अयोध्या के राजा लक्ष्मण होते हैं जव कि वैदिक परम्परा राम का राज्याभिषेक मानती है। ये अन्तर तो पात्रों और घटनाओं के सम्बन्ध में हैं, कुछ अन्तर ऐसे हैं जो सैद्धान्तिक मान्यता और धर्म एवं सांस्कृतिक परम्पराओं के कारण आ गये हैं । अवतारवाद बनाम उत्तारवाद-वैदिक परम्परा के भगवान अपने भक्तों की रक्षा और. दुष्टों का दलन करने हेतु अवतार लेकर पृथ्वी पर आते हैं। राम भी इसी हेतु भूमि पर आये थे। वे विष्णु के अवतार थे । जैन परम्परा के ईश्वर दुबारा जन्म नहीं ग्रहण करते-वे तो एक बार कर्म-बन्धन - से मुक्त होकर सदा के लिए मुक्त हो जाते हैं, कृतकृत्य हो जाते हैं, कुछ भी करने को शेप नहीं रहता। जैन परम्परा के अनुसार श्रीराम भी अपने जीवन के अन्तिम दिनों में श्रामणी दीक्षा लेते हैं, तपश्चर्या करते हैं तथा सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाते है-ईश्वर बन जाते हैं ।
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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