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________________ . वनमाला का उद्धार | २३३ आकर देखा तो स्त्रियों का समूह खड़ा था। माथे पर त्यौरी चढ़ाकर गरजा ---इन स्त्रियों के वाल पकड़कर घसीटते हुए नगर के बाहर छोड़ - आओ। आज्ञाकारी सामन्त स्वामी की आज्ञा पाते ही आगे बढ़े । स्वागत किया वीर लक्ष्मण ने हाथी बाँधने का कीला उखाड़कर ! उस अकेले ने ही सभी सामन्तों को विह्वल करके भगा दिया। __सामन्तों के भंग होते ही अतिवीर्य तलवार निकालकर भयंकर गर्जना करता हुआ लक्ष्मण को मारने आया। लक्ष्मण ने उसकी तलवार तो एक हाथ से छीन ली और दूसरे हाथ से उसके बाल पकड़कर खींच लिया । अतिवीर्य वीर्यविहीन सा चकित रह गया। उसी के वस्त्र से अतिवीर्य को वाँधा और घसीटने लगे। . अतिवीर्य दया की भीख माँगने लगा। दयालु सीता को दया आ गई। उसने आग्रह करके उसे बन्धनमुक्त कराया। अतिवीर्य ने भी भरत की सेवा करना स्वीकार कर लिया। उसी समय क्षेत्र देवता ने सबका स्त्री रूप हरण कर लिया। सभी अपने असली रूप में आ गये। इस चमत्कार को अतिवीर्य पलकें झपकाकर देखने लगा। उसकी बुद्धि भ्रमित हो गई। राम ने ही उसे आश्वस्त किया। -उठो अतिवीर्य ! विस्मय छोड़ो। तन्द्रा सी टूटी अतिवीर्य की। सामने राम-लक्ष्मण को देखकर उसने विनय करके उन्हें सन्तुष्ट किया। ' मानभंग हो चुका था उसका। स्त्रियों से हार जाने का अपयश प्राणनाश से भी बुरा था। अतिवीर्य के हृदय में वैराग्य जागा । अपने पुत्र विजयरथ को राज्य का भार दिया और स्वयं प्रवजित हो गया। विजयरथ ने अपनी वहिन रतिमाला लक्ष्मण को दी और भरत राजा की अधीनता स्वीकार करने अयोध्या चला गया।
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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