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________________ वनमाला का उद्धार | २३१ चिह्न नहीं आने दिये । क्रोध से काम विगड़ जाने का भय था इसलिए सहज स्वर में बोला नहीं ! निर्वल तो नहीं हैं, मेरे स्वामी ! किन्तु भरत राजा की सहायता अनेक नरेश करने को तत्पर हैं, इसीलिए आपकी मदद की आवश्यकता अनुभव हुई। राम ने दूत के स्वर में तल्खी स्पष्ट अनुभव की । वात आगे न वढ़े इसलिए उन्होंने कहा -दूत ! हम सैन्य सहित तुम्हारे स्वामी की सहायता के लिए यथासमय पहुँच जायेंगे। अभिवादन करके दूत चला गया तो राजा महीधर कहने लगे -राजा अतिवीर्य मन्दबुद्धि है जो मुझे भरत के विरुद्ध युद्ध में बुला रहा है । आपके वचन के अनुसार में सेना सहित जाकर उसका प्राणान्त कर दूंगा। -आप क्यों कष्ट करते हैं ? पुत्र तथा सेना आदि मेरे साथ कर दीजिए । मैं ही उसे योग्य शिक्षा दे दूंगा। -राम ने प्रत्युत्तर दिया। नहीं ! नहीं !! आप मेरे अतिथि हैं। मैं आपको युद्ध की ज्वाला में कैसे जाने दूँ ? . -आप भूलते हैं, राजन् ! विग्रह मेरे भाई के साथ हो रहा है। मेरा जाना ही उचित है। राम के शब्द सारगर्भित थे। भाई की विपत्ति की वात सुनकर दूसरा भाई शान्त नहीं रह सकता । राजा महीधर मौन हो गये। महीधर के पुत्र और सेना सहित श्री राम-लक्ष्मण और जानकी नंद्यावर्तपुर के समीप पहुंचे। सेना का शिविर नगर के बाहर उद्यान
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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