SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिहोदर का गर्व-हरण | २१३ - -नाथ ! अभिमानी सिंहोदर और भी कुपित हो गया। उसकी क्रोधाग्नि से बचने के लिए लोग इधर-उधर भाग गये और यह प्रदेश उजड़ गया । अव स्थिति यह है कि वज्रकर्ण अपनी ही नगरी में वन्दी होकर रह गया है और सिहोदर सिंह के समान जवड़ा खोलकर नगर के बाहर खड़ा है, कि कब वज्रकर्ण आवे और कब उसे मैं चवा जाऊँ। -इसी कारण स्वामिन् ! मैं भी परिवार सहित यह स्थान छोड़कर जा रहा हूँ । भाग्य से ही आप जैसे देव-पुरुषों के दर्शन हो गये। श्रीराम को दरिद्र पुरुष पर दया आई । उन्होंने मणिजटित स्वर्णसूत्र दे दिया। उसे विदा करके वे दशांगपुर के समीप आये। नगर के बाहर भगवान का ध्यान करके उन्होंने अनुज लक्ष्मण को संकेत कर दिया। लक्ष्मण राम के दूसरे हृदय ही थे। राम के भाव उनके चित्त में प्रतिविम्ब की भाँति झलकते थे। उन्होंने संकेत समझा और राजा वज्रकर्ण के पास पहुंचे। उनके तेजस्वी रूप को देखकर वज्रकर्ण उठ खड़ा हुआ और वोला-'आप हमारा आतिथ्य स्वीकार कीजिए।' लक्ष्मण ने उत्तर दिया-'मेरे अग्रज श्रीराम अपनी पत्नी सीता सहित नगर के बाहर बैठे हैं। पहले उनका सत्कार कीजिए।' दशांगपुर अधिपति ने राम-सीता के लिए भोजन आदि तुरन्त लक्ष्मण के साथ भेज दिया। भोजन आदि से निवृत्त होकर राम ने लक्ष्मण से कहा-तात ! सिंहोदर को शिक्षा देना हमारा कर्तव्य है। राम के इतने शब्द ही लक्ष्मण के लिए यथेष्ट थे । वे उठे और सिंहोदर के समक्ष जाकर अधिकारपूर्ण शब्दों में वोले -राजा दशरथ का पुत्र तुम्हें वज्रकर्ण का विरोध न करने की आज्ञा देता है।
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy