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________________ . A. . वरुण-विजयः | १२५ .. राजा प्रलंद ने अपने कर्तव्य का पालन किया। इन्होंने अपने हजारों अनुचर विद्याधरों को अंजना को खोजने भेज दिया। आदेश था- एक-एक नगर, ग्राम, वन, पर्वत-पूरी पृथ्वी को छान डालो कहीं से भी पवनंजय और अंजना की खवर लाओ। वे स्वयं भी उन दोनों को खोज में चल दिये। साथ में प्रहसित भी था। ... माता ने संतोष धारण किया और पुत्र तथा पुत्रवधू से मिलने की आशा में समय व्यतीत करने लगी। ... कुमार पवनंजय भटकता-भटकता भूतवन में पहुंचा। वह निराश हो चुका था। बुझे हृदय से उसने चिता वनाई और ऊँचे स्वर से कहने लगा -हे वन के देवी-देवताओ! मुझ पापी ने अपनी सती साध्वी पत्नी को घोर दुःख दिया। रणयात्रा के बीच से ही मैं रात्रि को लौटा और मेरे ही कारण वह गर्भवती हुई। लज्जावश माता-पिता से विना मिले. ही वापिस चला गया। सारा दोष उस निर्दोष पर पड़ा और मेरी माता ने उसे घर से निकाल दिया। उसके दुःखों का कारण मैं ही हूँ। उसका विरह अब मुझसे सहा नहीं जाता। : देवताओ ! उससे सिर्फ इतना ही कह देना कि 'पवनंजय ने तेरे विरह में आत्मदाह कर लिया। - राजा प्रह्लाद भी दैवयोग से वहाँ पहुँच गये और उन्होंने पुत्र के सम्पूर्ण शब्द सुन लिए। जैसे ही पवनंजय ने उछलकर चिताप्रवेश करना चाहा प्रह्लाद ने फुर्ती से दौड़कर उसका हाथ पकड़ . लिया । कुमार ने मुड़कर देखा तो सामने पिता खड़े हैं। पुत्र की आँखें भर आईं। पिता ने समझाया-वत्स! दुःख हमें भी बहुत है। जब से मालूम हुआ है कि ..
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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