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________________ इन्द्र का पराभव | १०३ 1 राजा सहस्रार ने स्वीकृति दी और रावण ने इन्द्र को मुक्त कर दिया 1 तभी से यह प्रसिद्ध है कि इन्द्र रावण की लंका में झाड लगाता था । x. x X मुक्त होकर इन्द्र रथनूपुर लौट आया । अपने पराभव से वह बहुत दुःखी था । क्योंकि तेजस्वी पुरुष अपमान को मृत्यु से भी दुःसह समझते हैं । कहाँ तो इन्द्र के अनुचर लंका पर राज्य करते थे और कहाँ अव वह स्वयं लंका का सफाई जमादार था । रथनूपुर के बाहर उद्यान में एक वार निर्वाणसंगम केवली का समोसरण आया । इन्द्र भी उनकी धर्म देशना सुनने गया । भक्तिपूर्वक नमन वन्दन करके उसने देशना सुनी और उसके बाद अंजलि बाँधकर पूछने लगा -- - सर्वज्ञदेव ! रावण के हाथों मेरा पराभव किस कर्म के कारण हुआ ? अनन्तज्ञानी केवली ने बताया- - अरिंजय नगर में वहत काल पहले ज्वलनसिंह नाम का विद्याधर राजा था । उसकी रानी वेगवती ने अहिल्या नाम की अति रूपवती कन्या को जन्म दिया । कन्या युवती हुई तो ज्वलनसिंह ने उसका स्वयंवर किया । उस स्वयंवर में चन्द्रावर्त नगर का राजा आनन्दमाली और सूर्यावर्त नगर का राजा तडित्प्रभ भी आये । अहिल्या ने स्वेच्छा से आनन्दमाली का वरण किया । तडित्प्रभ ने इसे अपना अपमान समझा और आनन्दमाली से ईर्ष्या रखने लगा । कुछ काल पश्चात् आनन्दमाली प्रव्रजित हो गये और श्रीसंव
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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