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________________ १०२ / जैन कयामाला (राम-कथा) पुत्रमोह से विवश राजा सहस्रार दिक्पालों सहित लंका में आया और राक्षसेन्द्र रावण से विनय करने लगा -~-महावली लंकेश ! मेरे पुत्र इन्द्र को मुक्त कर दो। मैं तुमसे पुत्र की भिक्षा माँगता हूँ। राजा सहस्रार के दीन वचनों से रावण प्रभावित हो गया। उसने कहा___-राजन् ! आप धर्मनिष्ठ हैं। मैं आपकी इच्छा की अवहेलना नहीं कर सकता किन्तु इन्द्र को उसके दम्भ का दण्ड अवश्य भुगतना पड़ेगा । उसने मानव होते हुए भी स्वर्गपति इन्द्र की नकल की ! उसी के समान वह स्वयं को समझने लगा। उसने दिक्पाल आदि नियुक्त किये । यह उसका घोर अपराध है । यदि वह दण्ड भुगतने को तैयार, हो तो मैं मुक्त कर सकता हूँ। -क्या दण्ड देंगे आप? -दुःखी पिता ने पूछा। -अपने निवासगृह के समान लंकापुरी की स्वच्छता, प्रतिदिन सुगन्धित जल से सिंचन और माली के समान प्रातःकाल देवालयों में विकसित और सुरभित पुष्प पहुँचाना आदि-इन कार्यों के उत्तरदायित्व को आपका पुत्र भली-भाँति पूरा करे तो मैं उसे छोड़ दूंगा। मेरी कृपा से वह अपना राज्य ले और सुखपूर्वक रहे । १ इन्द्र को छुड़ाने के लिए ब्रह्माजी स्वयं लंका पहुंचे । इन्द्रजीत ने 'यदि कभी मैं युद्ध के निमित्त किये जाने वाले यज्ञ होम को पूर्ण न करके युद्ध में प्रवृत्त हो जाऊँ तभी मेरी मृत्यु हो अन्यथा नहीं' यह वर लेकर इन्द्र को छोड़ा। [वाल्मीकि रामायण, उत्तरकाण्ड]
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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