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________________ मित्र का अनुपम त्याग | 89 ही जलाये यह ठीक है । प्रकट हो गई तो औरों को भी शल्य की भाँति दुःख देगी । मगर सुमित्र आसानी से पीछा छोड़ने वाला नहीं था । उसने अपनी मित्रता की शपथ दिलाकर प्रभव को विवश कर दिया । आखिर उसे बताना ही पड़ा कि वनमाला ही इसके दुःख का कारण है ! प्रभव की इच्छा सुनकर सुमित्र बोला - मित्र ! इतनी सी बात के लिए इतना दुःख सहा । तुम्हारे लिए राज्य का त्याग भी कर सकता हूँ तो एक वनमाला की क्या गिनती ? रात्रि के प्रथम पहर में ही वनमाला प्रभव के शयनकक्ष में जा पहुँची । उसने प्रभव से कहा - आपके मित्र ने मुझे आपकी सेवा में भेजा है । क्रीत दासी के समान आपकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करना मेरा धर्म है । मुझे आज्ञा दीजिए । सुमित्र के त्याग ने प्रभव की आँखें खोल दीं। वह मन-ही-मन स्वयं को धिक्कारने लगा । बोला . -वनमाला ! सुमित्र मनुष्य नहीं देवता है। उसने प्राण प्रिया का त्याग करके महादुष्कर कार्य किया है । कहाँ उसकी सदाशयता और कहाँ मेरी पामरता । चाण्डाल के समान मैं पापी किसी को अपना मुख भी दिखाने योग्य नहीं हूँ । देवी ! तुम मेरी माता समान हो । यहाँ से चली जाओ, सुन्दरी ! प्रभव ते नमस्कारपूर्वक वनमाला को विदा कर दिया । गुप्त रीति से आये हुए राजा सुमित्र ने अपने मित्र के यह शब्द सुने तो बहुत हर्षित हुआ ।
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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