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________________ ८६ / जैन कथामाला (राम-कथा) माता का और पितृमेध यज्ञ में पिता का वध करना चाहिए। यज्ञ में किसी का भी वध हो, कितने ही प्राणियों का हनन हो, पाप नहीं लगता क्योंकि यह सब देवताओं की आज्ञा से होता है। फिर सम्पूर्ण जगत में एक ईश्वर ही व्याप्त है । उसी का रूप अन्य सभी में प्रतिविम्वित हो रहा है । तव कौन किसको मारता है ? सब ईश्वर की ही माया है। वह ईश्वर यज्ञ से प्रसन्न होता है और हवन किये हुए प्राणियों तथा हवन करने वालों को स्वर्ग के सुख देता है।" इस प्रकार वह हिंसक यज्ञों का प्रचार करने लगा। सगर राजा को अपने मत में दीक्षित करके उसने अनेक यज्ञ कराये । पर्वत यज्ञ कराता और असुर महाकाल अपनी माया से उन होम किये हुए प्राणियों को सशरीर आकाश में जाते हुए दिखा देता। जनता को उनके मत में विश्वास जमने लगा और उनके मत का कुरुक्षेत्र आदि अनेक देशों में खूब प्रचार हुआ। यहाँ तक कि द्विजाति के पुरुष (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) यज्ञ करना अपना परम कर्तव्य समझने लगे। नारद ने आगे कहा कि इस घोर अन्याय को देखकर मैंने दिवाकर विद्याधर से सहायता की याचना की तो उसने कई बार यज्ञ-पशुओं का हरण कर लिया तब असुर महाकाल ने यज्ञवेदी में भगवान ऋषभ देव की प्रतिमा' रखना प्रारम्भ कर दिया । परिणामस्वरूप विद्याधर कुछ न कर सका और मैं असहाय अन्य स्थान को चला गया। . उसके पश्चात असुरराज ने सगर राजा को सुलसा रानी सहित यज्ञाग्नि में होम कर दिया और बदला चुकाकर अपने स्थान को चला गया। १ यह वर्णन त्रिषष्टि के अनुसार है । लेखक की मान्यता इससे सहमत नहीं है।
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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