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________________ ___७० | जैन कथामाला (राम-कथा) से निर्मल जल तो निकल जाता है और कचरा ही शेष रह जाता है उसी प्रकार तुम दोनों के हृदय में परमार्थ तो ठहरा नहीं, पापपंक ही एकत्र हो गया है। गुरुजी ने निर्वेद (वैराग्य) पाकर दीक्षा ग्रहण कर ली। मैं वहाँ से चला आया और वसु राजमहल में चला गया। पर्वत ने पिता की गद्दी सँभाल ली । अभ्यासियों को विद्या दान करने लगा। कुछ समय पश्चात् राजा अभिचन्द्र भी प्रवजित हो गये और वसु शुक्तिमती नगरी का राजा बना। सत्यवादी के रूप में वसु की प्रसिद्धि सभी ओर व्याप्त हो गई-वह था भी सत्यवादी ! एक वार विध्यगिरि की तलहटी में किसी शिकारी को एक हरिण दिखाई दिया। उसने निशाना बाँधकर तीर छोड़ा तो वाण मार्ग में ही किसी वस्तु से टकराकर गिर पड़ा। शिकारी आश्चर्यचकित रह गयां । वह कारण जानने को वहाँ पहुंचा तो वह भी टकरा गया। हाथों से स्पर्श किया तो मालूम हुआ कि एक विशाल शिला पड़ी है जिसे देखा नहीं जा सकता । उसने विचार किया-यदि यह अद्भुत शिला राजा वसु को भेंट कर दी जाय तो मुझे अच्छा पुरस्कार मिलेगा ! उसने वह शिला राजा को दिखाई। वसु बहुत प्रसन्न हुआ और उसे वहुत-सा धन पुरस्कारस्वरूप दे दिया । वह शिला को उठवा लाया और कारीगरों द्वारा एक आसन वेदिका निर्मित कराई। वेदिका वन जाने के वाद उसने उन सव कारीगरों को मरवा डाला और निःशंक होकर यह प्रचारित करा दिया कि सत्यवादी राजा वसु का सिंहासन आकाश में स्थिर है । भोले लोगों ने उसकी बात पर विश्वास भी कर लिया । उसका यश और भी ज्यादा फैल गया।' १ स्फटिक शिला प्राप्त करने की घटना इस प्रकार वणित है एक दिन राजा वसु वन-क्रीड़ा के लिए गया । वहाँ उसने देखा कि, पक्षी उड़ते हुए मार्ग में ही टक्कर खाकर गिर पड़ते हैं। इसका
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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