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________________ हिंसक यज्ञों की उत्पत्ति | ६६ को ही परम धर्म बताया है और अब अचानक ही अकारण जीव हिंसा का आदेश । इस प्रकार विचार करता हुआ मैं मुर्गे को जीवित ही वापिस लौटा लाया और विनम्र स्वर में निवेदन कर दिया -गुरुजी ! मुझे कोई ऐसा स्थान नहीं मिला जहाँ कोई न देख रहा हो। ___ गुरुजी ने मेरी प्रशंसा की और उन दोनों की भर्त्सना ! वे वोले -मेरी शिक्षा का सही अर्थ केवल नारद हो समझा है, तुम दोनों तो चलनी के समान ही रहे । जिस प्रकार चलनी के छेदों में . नारद ने आगे कहा- 'इसी प्रकार मैंने वन में देखा कि हथिनी के पिछले पैरों के चिह्न उसके मूत्र से भीगे हुए हैं अतः निश्चय हो गया कि वह हथिनी ही है । दाई ओर के वृक्ष टूटे हुए थे अतः उसके कानी होने का अनुमान लग गया। उस पर सवार स्त्री मार्ग की थकावट के कारण उतरकर नदी के विल्कुल ही समीप लेटी थी। वहाँ पर जो उसके उदर का चिह्न वना उससे उसका गर्भिणी होना स्पष्ट नजर आता था। समीप के झाड़ पर उसकी साड़ी का एक कोना काँटों में उलझ कर फट गया था अतः स्पष्ट था कि वह सफेद साड़ी पहने है । इन्हीं सब बातों से मैंने अनुमान लगाए। उपाध्याय क्षीरकदंव नारद की इन बातों से सन्तुष्ट हुए । -उत्तर पुराण पर्व ६७, श्लोक २८२-३०४ ३ (ग) यहाँ मुर्गे मारने की घटना के स्थान पर आटे के बकरों के कान छेदने का उल्लेख है। पर्वत तो वकरे के कान छेद कर ले आया किन्तु नारद नहीं। -श्लोक ३०५-३१७
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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