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________________ है, एवं खण्डेला अभिलेख का उल्लेख किया है जिसमें लगभ्र 7 वीं (645 ई.) सदी में अर्द्धनारीशवर के मंदिर बनवाने का उल्लेख है ।267 शिव के शरीर का रंग, वाहन एवं सिर पर गंगाधारण करने की प्रचलित मान्यताओं को उद्योतन ने एक पंक्ति में सुन्दर एवं अलंकृत रूप में रखा हैं-धवल-वाहण-धवल-देहस्स सिर भ्रमित जा विमल-जल268 । श्वेत शिव मूर्ति, श्वेत नन्दी एवं शिव के सिर पर गंगा की धारा साहित्य में तो प्रचिलित थी ही, प्राचीन भारतीय कला में भी इसका अंकन होने लगा था। संकट के समय हर-हर महादेव का स्मरण किया जाता था तथा हर की यात्रा करने की मनौती मानी जाती थी ।269 इस यात्रा का लक्ष्य हर के किस मंदिर की अर्चना करना था, यह स्पष्ट नहीं है। यात्रियों का जहाज सोपारक बन्दरगाह की तरफ लौट रहा था। समुद्र तूफान में फँसे हुये यात्री हर की मनौती मानकर उससे बचना चाहते थे। अत: संभव है, यह हर का प्रसिद्ध मन्दिर कहीं राजस्थान में ही रहा होगा। राजस्थान में कालकलेश्वर मन्दिर महाकाल की तरह ही पवित्र माना जाता था।270 शिव के योगी स्वरूप की तुलना उद्योतन ने विजयापुरी के पामरजनों से की है। वहाँ के कुछ लोग शंकर जैसे अपार वैभव के स्वामी एवं हुंकारते हुए मस्त वृषभ को वश में करने थे (शरीर में भभूति लपेटे हुए शिव वृषभ पर आरूढ)-71 बधेरा से प्राप्त शिव की योगीश्वर मूर्ति से कुवलयमाला का यह कथन प्रमाणित होता ।272 सूर्य:-जैन कथाओं में अन्य देवी-देवताओं की तरह सूर्य देव की सत्ता में भी विश्वास करने के साक्षय मिलते हैं। समराइच्चकहा में इन्हें दिनकर कहकर ऋषिगण, किन्नर तथा लक्ष्मी आदि से वन्दनीय बताया गया है ।273 सूर्य देव को तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाला देवता समझकर उनकी पूजा की जात थी। वह अपनी तेजस्वित के कारण ही तोनों लोकों में वन्दनीय समझे जाते थे।274 विश्व की प्रत्येक प्राचीन सभ्यता यथा-मिस्र-मेसोपोटामिया, ग्रीक, रोम, ईरान, और भारत में उपासना का उल्लेख पाया गया है ।275 कुछ विचारकों के अनुसार सूर्य की उपासना उत्तर पाषाण काल से ही प्रारम्भ हुई (123)
SR No.010266
Book TitleJain Katha Sahitya me Pratibimbit Dharmik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Tiwari
PublisherIlahabad University
Publication Year1993
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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