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________________ जातिमद उदारता ७६ गया। इसलिये जिस के घोड़े ने मारा था वह जैन वहिष्कृत कर दिया गया। इसी प्रकार पचायती अन्याय के सैकड़ों नमूने उपस्थित किये जा सकते हैं । हमारा तो ख्याल है कि यदि पंच लोग इस प्रकार के अन्याय करें तो उनके विरुद्ध कोर्ट की शरण लेकर उन की अक्कल ठिकाने लानी चाहिये, हमारा शास्त्रीय प्रायश्चित्त दण्ड विधान बहुत ही उदार है, कोर्ट में वह बताना चाहिये, उसी के अनुसार दण्ड दिया जाना उचित है । विना इस मार्ग के ग्रहण किये अन्याय दूर नहीं होगा, इसके पूर्व इसी पुस्तक के पृष्ठ १५ पर "शास्त्रीय दण्ड विधान" और पृष्ठ १६ पर "अत्याचारी दण्ड विधान" नामक दो प्रकरण इसो विपय में दिये गये हैं, उनसे भी प्रायश्चित्त मार्ग विशेप मालूम हो सकेगा। जातिमद। वर्तमान में जैन धर्म की उदारता को नष्ट करने वाला जाति मद है। हमने धर्म के असली रूप को भुला दिया है और जाति के विकृत रूप को असली रूप मान लिया है । यही हमारे पतन का कारण है। इसी पुस्तकके पूर्व भागमें यह भली भांति बताया जा चुका है कि जैनधर्म ने जाति को प्रधानता न देकर गुणों की आराधना करने का उपदेश दिया है। किन्तु इस ओर ध्यान न देकर हम जातियों के कल्पित भेद-जाल में फंसे हुये हैं। जबकि श्री अमितगति आचार्य ने जातियों को वास्तव में कल्पित और. मात्र आचारपर प्राधार रखने वाली बताया है । यथाः ब्राह्मण क्षत्रियादीनां चतुर्णामपितत्वतः । ___ एकैव मानुषीजातिराचारेण विभज्यते ॥
SR No.010259
Book TitleJain Dharm ki Udarta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1936
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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