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________________ - ~~14AM जनधम की उदारता wwwwwwwwwwwwwwwwww.sroman usou won है। मगर यह दोनों व्यसन पुरुषों के हीसंभव है, स्त्रियों के नहीं। फिर भी पहले का अर्थ स्त्रियों के लिये 'परपुरुप सेवन' लगाया जाता है। और वेश्यासेवन की जगह तो स्त्रियों के लिये कोई दूसरा अर्थ भी नहीं मिलता फिर भी स्त्रियों की अपेक्षा भी सात ही व्यसन होते हैं, न कि पांच या छह । (३) तमाम श्रावकाचार प्रायः श्रावकों को लक्ष करके लिखे गये हैं। फिर भी वही कथन श्राविकाओं के लिये भी लागू होता है। कोई भिन्न 'श्राविकाचार' तो है हो नहीं। इसीप्रकार प्रायश्चित्त विधान जो पुरुपोंके लिये है वहीं स्त्रियां के लिये भी समझना चाहिये । और पुरुषों की भांति स्त्रियों को भी प्रायश्चित देकर शुद्ध करना चाहिये । अन्यथा वे अबलायें मुसलमान और ईसाई होती रहेंगी तथा जैनसमाजका क्षय होताजायगा। हमारी विवेकहीन पंचायतें अपने जाति भाइयों को किस प्रकार जाति पतित बनाती हैं । इसके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं जो अभी ही बने हैं और बिलकुल सत्य हैं। (१) एक जैन की मां अन्धी थी वह बाहर शौच के लिये जा रही थी, मार्ग में एक कुवां था, वह न दिखने से बुड्ढी मां उसमें अनायास गिर पड़ी और मर गई ! बस, विचारे उस जैन को जाति से बन्द कर दिया और उसका मन्दिर भी बन्द कर दिया। (२) एक जैन स्त्री बाहर शौच के लिये गई थी। वहां एक बदमाश मुसलमान ने उसे छेड़ा। तब उस वीर महिला ने उस मुसलमान को लोटे से इतना मारा कि वह घायल हो गया और एक गड्ढे में जा गिरा। फिर भी तरह तरह की शंकायें करके वह स्त्री जाति से बन्द करदी गई। (३) दो जैनों के घोड़े आपस में लड़ पड़े। एक घोड़ा मर
SR No.010259
Book TitleJain Dharm ki Udarta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1936
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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