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________________ जैनधर्म की उदारता ३४ VL कि हमारी समाज ने इस ओर बहुत दुर्लक्ष्य किया है; इसी लिये उसने हानि भी बहुत उठाई है । सभ्य संसार इस बात को पुकार पुकार कर कहता है कि अगर कोई अंधा पुरुप ऐसे मार्ग पर जा रहा हो कि जिस पर चल कर उसका आगे पतन हो जायगा, भयानक कुग्रे में जा गिरेगा और लापता हो जायगा तो एक दयालु समझदार एवं विवेकी व्यक्ति का कर्तव्य होना चाहिये कि वह उस अंधे का हाथ पकड़ कर ठीक मार्ग पर लगादे, उसको भयाक गर्त से उबार ले और कदाचित वह उस महागर्त में पड़ भी गया हो तो एक सही व्यक्ति का कर्तव्य है कि जब तक उस की श्वास चल रही है, जब तक वह अन्तिम घड़ियां गिन रहा है तब तक भी उसे उभार कर उसकी रक्षा करले । वस, यही परम दया धर्म है, और यही एक मानवीय कर्तव्य है । . इसी प्रकार जब हमें यह अभिमान है कि हमारा जैनधर्म परम उदार है सार्वधर्म है, परमोद्धारक मानवीय धर्म है तथा यही सच्ची दृष्टि से देखने वाला धर्म है तब हमारा कर्तव्य होना चाहिये कि जो कुमारित हो रहे हैं, जो सत्यमार्ग को छोड़ बैठे हैं, तथा जो सिध्यत्व, अन्याय और अभक्ष्य को सेवन करते हैं उन्हें उपदेश देकर सुमार्ग पर लगावें । जिस धर्म का हमें अभिमान है उस से दूसरों को भी लाभ उठाने देवें । लेकिन जिनका यह भ्रम है कि अन्याय सेवन करने वाला, मांस मदिरा सेवी, मिध्यात्वी एवं विधर्मी को अपना धर्म कैसे बताया जावे, उन्हें कैसे साधर्मी बनाया जावे, उनकी यह भारी भूल है । अरे ! धर्म तो मिध्यात्व, अन्याय और पापों से छुड़ाने याला ही होता है । यदि धर्म में यह शक्ति न हो तो पापियों का उद्धार कैसे हो सकता है ? और जो अधर्मियों को धर्म पथ नहीं चतला सकता बस धर्म ही कैसे कहा जा सकता है ?
SR No.010259
Book TitleJain Dharm ki Udarta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1936
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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