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________________ २६ जैन धर्म की उदारता. की योग्यतानुसार श्रेणी विभाग है जब कि गोत्र का आधार कर्म पर है। अतः गोत्रकर्म कुल की अथवा व्यक्ति की प्रतिष्ठा अथवा अप्रतिमा के अनुसार उच्च और नीच गोत्री होसकता है । इसप्रकार गोत्र कर्म की शास्त्रीय व्याख्या सिद्ध होने पर जैन धर्मकी उदारता स्पष्ट मालूम होजाती है। ऐसा होने पर ही जैन धर्म पतित पावन या दीनोद्धारक सिद्ध होता है। पतितों को उद्धार । जैन धर्म की उदारता पर ज्यों २ गहरा विचार किया जाता है त्यों त्यों उसके प्रति श्रद्धा बढ़ती जाती है। जैनधर्म ने महान पातकियों को पवित्र किया है, दुराचारियों को सन्मार्ग पर लगाया है, दीनों को उन्नत किया है और पतित का उद्वार करके अपना जगद्वन्धुत्व सिद्ध किया है। यह बात इतने मात्रसे सिद्धहोजाती है कि जैनधर्म में वर्ण और गोत्र को कोई स्थाई, अटल या जन्मगत स्थान नहीं है । जिन्हें जातिका कोई अभिमान है उनके लिये जैन ग्रंथकारों ने इस प्रकार स्पष्ट शब्दों में लिखकर उस जाति अभिमान को चूर चूर कर दिया है कि नविनाविप्रयोरस्ति सर्वथा शुद्धशीलता। कालेननादिना गाने स्खलनं क न जायते॥ संयमो नियमः शीलं तपो दानं दमो दया । विद्यन्ते तात्विका यस्यां सा जातिमहती मता॥ अर्थात--ब्राह्मण आर अब्राह्मण की सर्वथा शुद्धि का दावा नहीं किया जासकता है, कारण कि इस अनादि काल में न जाने किसके कुल या गोत्र में कब पतन होगया होगा! इस लिये वास्तव में उच जाति तो वही है जिसमें संयम, नियम, शील, तप, दान,
SR No.010259
Book TitleJain Dharm ki Udarta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1936
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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