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________________ सम्मतियां annorunamannammmmmmmmmmmmm जितने भी प्रमाण हैं वे सब पुष्ट प्रमाण हैं । दिगम्बर जैन समाज का कर्तव्य है कि लेखकके विचारों को दूर दूर तक फैलावे । आप के एक बालक ने पुस्तक ही नहीं लिखी है बल्कि आपको उन्नति के शिखर पर पहुँचने के लिये वलवती सम्मति दी है। यदि हमारी समाज का कोई मुनि इस विषय की पुस्तक लिखता तो मैं उसके पैरों में लोट जाता है परन्तु गुण ग्राहिता की दृष्टि से परमेष्ठी को भी धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता। (8) स्थानकवासी मुनि श्री पं० पृथ्वीचन्द्रजी महाराज जैनधर्म की उदारता कितना सुन्दर एवं औचित्यपूर्ण नाम है ! जैनधर्म पर-धर्म के नाम पर लगे हुये कलंक को धो डालने का जो सामयिक कर्तव्य था वही इस पुस्तक में किया गया है। इसमें जो भी लिखा है वह शामूलक है । यही इस पुस्तक की विशेषता है। इसी लिये पं० परमेष्ठोदास जी विशेष धन्यवाद के पात्र हैं। इसमें यदि श्वे० प्रमाण भी लिये जाते तो इसका प्रचार क्षेत्र बढ़ जाता। (अबकी बार इसी सूचना को ध्यान में रख कर कुछ श्वे० प्रमाण भी रखे गये हैं।) लेखक के विचारों से मैं सहमत हूँ। जैन समाज इस पुस्तक का हृदय से स्वागत करे और उस मार्ग का अनुसरण करके प्राचीन गौरव की रक्षा करे । (१०) स्याद्वादवारिधि जैन सिद्धान्तमहोदधि न्यायालंकार पं० वंशीधरजी जैन सिद्धान्त शास्त्री इन्दौर--- जैनधर्म की उदारता पढ़ने से इन बातों पर अच्छा प्रकाश पड़ता है कि पहले जमाने में जैनधर्म का किस तरह प्रसार था, शुद्धि का मार्ग कैसा प्रचलित था, तथा जाति और वर्ण किस बात पर अवलम्बित थे.
SR No.010259
Book TitleJain Dharm ki Udarta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1936
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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