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________________ जैनाचार्यांका शासनभेद अ में उसकी भोजनविरति हेतु प्रयुक्त उनके नहीं की गयमें अणुव्रतका उल्लेख करके उन्होंने फिर आलोकितपानभोजन नामकी, भावनामें उसकी उसी तरहं सिद्धि नहीं की जिस तरह कि महावतिओंकी दृष्टिसे रात्रिभोजनविरति नामके व्रतकी की है। और महाव्रतियोंकी दृष्टिसे जो आरंभदोपादिक हेतु प्रयुक्त किये गये हैं उनकी अणुव्रती गृहस्थोंके सम्बन्धमें अनुपपत्ति है-वे उनके नहीं बनतेइसलिये उनसे उक्त विषयकी कोई सिद्धि नहीं होती। मेरी रायमें श्रावकोंके छठे अणुव्रतकी, आलोकितपानभोजन नामकी भावनामें कोई सिद्धि नहीं बनती; जैसा कि ऊपर कुछ विशेष रूपसे दिखलाया गया है। इस संपूर्णकथनसे यह बात भले प्रकार समझमें आसकती है कि 'रात्रिभोजनविरति' नामका व्रत एक स्वतंत्र व्रत है । उसके धारण और. पालनका उपदेश मुनि और श्रावक दोनोंको दिया जाता है—दोनोंसे उसका नियम कराया जाता है-वह अणुव्रतरूप भी है और महाव्रतरूप भी । महाव्रतोंमें भले ही उसकी गणना न हो-वह छठे अणुव्रतके सदृश छठा महाव्रत न माना जाता हो-और चाहे मुनियों के मूलगुणोंमें भी उसका नाम न हो परंतु इसमें संदेह नहीं कि उसका अस्तित्व पंचमहाव्रतोंके अनंतर ही माना जाता है और उनके साथ ही मूलगुणके तौरपर उसके अनुष्ठानका पृथक् रूपसे विधान किया जाता है, जैसा कि इस लेखके शुरूमें उद्धृत किये हुए 'आचासारके' वाक्य और 'मूलाचार के निम्नवाक्यसे भी प्रकट है: "तेसिं चेव वदाणं रक्खहं रादिभोयणविरत्ती।" ऐसी हालतमें रात्रिभोजनविरतिको यदि छठा महाव्रत मान लिया जाय अथवा महाव्रत न मानकर उसके द्वारा मुनियोंके मूलगुणोंमें एककी
SR No.010258
Book TitleJain Acharyo ka Shasan Bhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages87
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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