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________________ अणुवत और रात्रिभोजनविरति "ननु पंचसु व्रतेष्वनंतर्भावादिह रात्रिभोजनविरत्युपसंख्यामिति चेन्न, भावनान्तर्भावात् । तत्रानिर्देशादयुक्तोऽन्तर्भाव इति चेन्न, आलोकितपानभोजनस्य वचनात् ।” ___ इससे मालुम होता है कि विद्यानन्द आचार्यकी दृष्टि श्रीपूज्यपाद और अकलंकदेवकी उस सदोष उक्ति पर पहुंची है, जिसके द्वारा उन्होंने उक्त छठे अणुव्रतको आलोकितपानभोजन नामकी भावनामें अंतर्भूत किया था; और इस लिये उन्होंने उसका उपर्युक्त प्रकारसे संशोधन करके कथनके पूर्वापर संबंधको एक प्रकारसे ठीक किया है। वास्तवमें वार्तिककारोंका काम भी प्रायः यही होता है । वे, अपनी समझ और शक्तिके अनुसार, उक्त, अनुक्त, और दुरुक्त तीनों प्रकारके अर्थोकी चिन्ता, विचारणा और अभिव्यक्ति किया करते हैं। उक्तार्योंमें जो उपयोगी और ठीक होते हैं उनका संग्रह करते हैं, शेपको छोड़ते हैं; अनुक्ताओंको अपनी ओरसे मिलाते हैं और दुरुक्तार्थीका संशोधन करते है-जैसा कि श्रीहेमचंद्राचार्य-प्रतिपादित 'वार्तिक' के निम्न लक्षणसे प्रकट है: "उक्तानुक्तदुरुक्तार्थचिन्ताकारि तु वार्तिकम् ।" अकलंकदेव भी वार्तिककार हुए हैं। उन्होंने भी अपने राजवातिकमें ऐसा किया है। परन्तु उनकी दृष्टि पूज्यपादकी उक्त सदोष उक्ति पर नहीं पहुंची, ऐसा मालुम होता है । अथवा कुछ पहुँची भी है, यदि उनके 'तदपि पष्ठमणुव्रतं' इस वाक्यका 'वह (रात्रिभोजनविरति) भी छठा अणुव्रत है' ऐसा अर्थ न करके 'वह छठा अणुव्रत भी है' -यह अर्थ किया जाय । ऐसी हालतमें कहा जायगा कि उन्होंने पूज्यपादकी उस दुरुक्तिका सिर्फ आंशिक संशोधन किया है। क्योंकि छठे
SR No.010258
Book TitleJain Acharyo ka Shasan Bhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages87
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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