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________________ १२२ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमोः स्थान कराव्यां हतां यूत तथा मारी शब्दना कयनें करी पोतानी बेहेनना वर शाकंनरी राजाने शिक्षा करी मांस नहाण करनार पासेंथी दंम जश्ने बत्रीश जैनप्रासाद कराव्यां,ए प्रकारें साते उर्व्यसननो नाश कस्यो ॥११॥ रुक् पथ्यं च रसैर्यथा बहुतया संसेवितैलोलुपै, धीरै यविधिना नवेदपि॥पागंतरे॥(बहुतया यूनेन संतोषि पा योग्यायोग्यतयाशितैरिह) तथा संसारमोदावयि ॥ यन्नानारसलालसःस मथुरामगुर्नवं भ्रांतवान्, यत्ती र्णश्च सुढंढणः सममघैः सन्मोदकदोदकः ॥१०॥ अर्थः-(लोलुपैः के०) रसलोलुप एवा पुरुषोयें (बहुतया के) घणी रीतें ( संसेवितैः के० ) सेवन करेला एवा (रसैः के०) रसोयें करी (रुक् के० ) रोग ( यथा के०) जेम थाय ने (च के० ) वली ( तथा के०) तेम (धीरैः के) धीर पुरुषोयें ( यत् के० ) जे (विधिना के०) विधियें करीने सेवन करेला रसें करी (पथ्यंबपि के०) पथ्य पण (नवेत् के० ) थाय (पाठांतरथी) (बहुतयायूनेन के०) अत्यंत जोजनना प्रीतिवाने तथा (संतोषिणा के०) नोजनमां संतोषी एवा पुरुचे ( योग्यायोग्यतयाऽशितैः के) योग्यायोग्य नोजनथी (इह के०) आहिं ( तथा के०) तेम (अपि के० ) वली ( संसारमोदावपि के०) संसार अने मोद पण प्राप्त कराय ने. अर्थात् रसलोलुपने संसार वृद्धि अने त्यागीने मोद थाय जे. जुवो (यत् के ) जे कारण माटे ( नानारसलालसः के) नाना प्रकारना रसमां लोलुप एवो ( सः के० ) ते प्रसिह (मथुरामंगुः के०) मथुरामंगु नामा आचार्य (नवं के) संसार प्रत्यें (ब्रांतवान् के) जमतो हवो ( यत् के) जे कारण माटे ( च के०) वली जुवो ते केवो ? (सन्मोदकदोद कः के०) सारा लाडुने चूर्ण करी परतवनार एवो (सुढंढणः केस) सुढंढ ण मुनि, ते (अधैःसमं के) पाप सहित (तीर्णः के०) संसारथी तरी ग यो. अर्थात् मोक्ने प्राप्त थयो, एटले रसलोलुपतायें मथुरामंगु दीर्घ संसा री थयो, अने ढंढणमुनि रसलोलुप न होवाथी संसारथी तरी गयो, पानं तरथी अत्यंत नोजनप्रिय पुरुपें तथा जोजनमां संतोष राखनारा एवा पु
SR No.010250
Book TitleJain Katha Ratna Kosh Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1891
Total Pages401
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size44 MB
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