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________________ जैन ज्योतिर्लोक विशेष — जनागम में योजन के २ भेद हैं । (१) लघु योजन (२) महा योजन । ४ कोश का लघु योजन एवं २००० कोश का महायोजन होता है | योजन एवं कोश आदि का विशेष विवरण इसी पुस्तक के अन्त में दिया गया है। यहाँ तो लोक प्रसिद्ध १ कोश में २ मोल माने हैं उसी के अनुसार १ महायोजन में स्थूल रूप से ४००० मोल मानकर सर्वत्र ४००० से ही गुरणा करके मील की संख्या बताई गई । क्योंकि जम्बूद्वीप प्रादि द्वीप, समुद्र, ज्योतिर्वासी बिब प्रादि एवं पृथ्वीतल से उनकी ऊंचाई आदि तथा सूर्य, चन्द्र की गली ' एवं गमन आदि का प्रमाण आगम में महायोजन से माना है । प्र यहाँ सूर्य-चन्द्र आदि के स्थान, गमन श्रादि के क्षेत्र को बतलाने के लिये प्रारम्भ में कुछ प्रति संक्षिप्त भौगोलिक (द्वीपसमुद्र संबंधि) प्रकरण ले लिया है। अनंतर ज्योतिर्लोक का वर्णन किया जायेगा । प्रकाश के २ भेद हैं- ( १ ) लोकाकाश (२) श्रलोकाकाश । लोकाकाश के ३ भेद हैं-- (१) अधो लोक (२) मध्यलोक (३) ऊर्ध्वलोक । अनन्त लोकाकाश के बीचोंबीच में यह पुरुषाकार तीन लोक है । १ भ्रमण मार्ग ।
SR No.010244
Book TitleJain Jyotirloka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Jain Saraf, Ravindra Jain
PublisherJain Trilok Shodh Sansthan Delhi
Publication Year1973
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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