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________________ वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला अर्थ-जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहा गया कोई-कोई तत्त्व अत्यन्त सूक्ष्म है। किसी भी हेतु के द्वारा उसका खण्डन नहीं हो सकता है परन्तु-"जिनेन्द्र देव ने ऐसा कहा है" इतने मात्र से ही उस पर श्रद्धान करना चाहिये। क्योंकि-"जिनेन्द्र भगवान अन्यथावादी नहीं हैं" इस प्रकार की श्रद्धा से जिनका हृदय प्रोतप्रोत है उन्हीं महानुभावों के लिये यह मेरा प्रयास है। तथा जो आधुनिक जैन बन्धु या अजन बन्धु अथवा वैज्ञानिक लोग जो कि मात्र जैन धर्म में "ज्योतिर्लोक के विषय में क्या मान्यता है" यह जानना चाहते हैं। उनके लिये हो संक्षेप से यह पुस्तक लिखी गई है। प्राज से लगभग १२०० वर्ष पहले भी प्राचार्य श्री विद्यानंद स्वामी ने श्लोकवातिक ग्रन्थ में भूभ्रमण खण्डन एवं ज्योतिर्लोक के विषय पर अत्यधिक प्रकाश डाला था। जिसकी हिन्दी स्व. पं० माणिकचन्द्रजी न्यायालकार ने बहुत विस्तृत रूप में की है । ये ग्रन्थराज सोलापुर से प्रकाशित हो चुके हैं। इन प्रकरणों को विशेष समझने के लिये श्री श्लोकवार्तिक में "रत्नाशर्करावालुकापंक' इत्यादि सूत्र का अर्थ तथा "मेरूप्रदक्षिणा नित्यगतयोनलोके" सूत्र का अर्थ अवश्य देखें । तथा लोकविभाग का छठा अधिकार एवं तिलोयपण्णत्ति दूसरे भाग का सातवां अधिकार भी अवश्य देखना चाहिये।
SR No.010244
Book TitleJain Jyotirloka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Jain Saraf, Ravindra Jain
PublisherJain Trilok Shodh Sansthan Delhi
Publication Year1973
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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