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________________ (५१) १५३ और बालिका मात्र १०५ एव ३० वर्ष अथवा उससे कम के १० विधुर व १७ विधवाये है। और फिर यदि कहीं भाज 'इसकी गणना की जाय तो कठिनता से ७०० को हो संख्या 1 में मिलेगी। इसतरह विवाह क्षेत्र का सकोच ही यह कारण है । कि वह एक दम घट रही है और ऐसी कठिन समस्या है कि सम्बन्ध करना कठिन हो रहे हैं क्योंकि करीव करीव सपका सबसे कोई न कोई पहिले का रिश्ता है। इस अवस्था में यह जाति अधिक दिन जो नहीं सकी । परन्तु यदि अन्य जातियों से विवाह सम्बन्ध होने लग जावे तो इस को संख्या बढ़ने लगे और अनमेल विवाह, कन्याविक्रय श्रादि न होकर परस्पर प्रेम की वृद्धि हो । प्रत्येक जाति में विवाह सम्बन्ध खुल जाना धार्मिक एवं सामाजिक दोनों दृष्टियों से लाभप्रद है। क्योंकि शास्त्रों में जव यथाविधि वर्षों में विवाह करने की आशा है तो एक ही वर्ण के मनुष्यों के परस्पर विवाह करने में कोई हानि नहीं हो सकती। इसके अतिरिक शिलालेखीय ऐतिहासिक खोज से यह स्पष्टतः प्रमाणित है कि आज कल जो उपजातियां जैनसमाज में दिखलाई पड़ रही है, वे क्षत्रीवंश के परमार्जित वश ही हैं यह यात पूर्णरूप से मेरी पुस्तक "प्राचीन जैन लेख एवं प्रश:स्तिसंग्रह" जो जैनसुधाकर प्रेस, वर्धा से प्रकट हुई है, • प्रमाणित है। और यह शास्त्रसम्मत नहीं है कि एक वश के पुरुष परस्पर विवाह संबन्ध करें। इसलिये इस समयअग्रवाल खण्डेलवाल आदि उपजातियों को परस्पर एक दूसरे से विवाह करना चाहिये। मूलाचार में एक स्थान पर स्पष्ट बतलाया है कि जो माता का कुल होता है वह तो संतान की जाति होती है और जो पिता काबंश होता है वह उसका कुल
SR No.010243
Book TitleJain Jati ka Hras aur Unnati ke Upay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherSanyukta Prantiya Digambar Jain Sabha
Publication Year
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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