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________________ लिये एक यही मार्ग है कि अन्य उच्चजातियों में से वे कन्याओं को ले पावें। इसमें शास्त्र विरोध भी कोई उपस्थित नहीं होता, क्योंकि हम पहिले जीवंधरकुमार के चरित्र में देख चुके हैं कि जैन धर्मानुयायियों में इस प्रकार के विवाह चाज, थे।अथवा श्री आदिपुराण जी के कथनानुसार इस ओर अविवाहित पुरुषों के लिये मार्ग खोल देना चाहिये। आदि . पुराण का कथन है कि:- । । "शुद्धाशद्रेण वोढव्या नान्या स्वां तां च नेगमः। ' . वहेत्स्वाते चराजन्यः स्वां द्विजन्मोक्कचिच्चताः॥२४७॥१६॥" ___ कहा है कि ब्राह्मण चारों वर्षों की कन्याओं से, क्षत्री अपने वर्ण की तथा वैश्य और शूद्र की कन्याओं से और वैश्य अपने वर्ण की कन्या से तथा शद्र की कन्या से विवाह कर सक्ता है। एवं शुद्र शुद्र ही से। इस कथन की पुष्टि जैन आर्षग्रन्थों के दायभाग के विवरणों से भी होती है जिसमें अन्य वर्णों की कन्याओं से उत्पन्न पुत्रों का अधिकार प्रथका लिखा है। (देखो "वीर" के १०३ अङ्क में "जैनलो' शीर्षक लेख) इनके अतिरिक्त मेधावी कृत श्रावका चार और सोमदेव के त्रिवर्णाचार में भी वर्णी के परस्पर विवाह करने काउल्लेख: है। एक इसकी पुष्टिं विक्रम सं०६०० के एक शिलालेख से भी होती है जो जोधपुर के पास से मिला है। उसमें एक सरदार द्वारा जैनमन्दिर बनवाने का उल्लेख है तथा उसकी उत्पत्ति उस पुरुप से वतलाई है जिसका विवाह एक ब्राह्मण वंशज से हुआ था। और जब इस प्रकार हम शिलालेखीय प्रमाणभी इसकी पुष्टि में पाते हैं तो कोई कारण शेष नहीं रहना कि. अन्य वर्णों अथवा जातियों में से कन्यायें स्वीकार न की जावे! हां शायद यह वात यहॉ पर वाधक हो कि अजैनों के साथ
SR No.010243
Book TitleJain Jati ka Hras aur Unnati ke Upay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherSanyukta Prantiya Digambar Jain Sabha
Publication Year
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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