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________________ (१६) १२ विवाह में बाधक अन्य कारण एवं आपसी विरोध १३ सियों को उचित देखभाल और सम्मान न करना। १४ मांगो को छोड़ कर शहरों में रहना, और १५. निजधर्म से अभिज्ञ होने के कारण नार्यसमाजी या हिन्दू आदि विधों हो जाना और अन्यों को जैनो न बनाना। पहिते कारण साधु-साध्यो के भाव में जो सनि समाज को हो रही है उसका दिग्दर्शन हम पहिले करा चुके है। वरतुतः जैन समाज की उन्नति को जड़ इस मूल कारण को दूर कर देने में है। और यह दूर तयही हो सकता है जब समा.. ज के अनुभवी विचारवान पुरुप धर्म के मूलभाव को समझ कर त्याग के महत्व को समझ। और अपने जीवन से इस बात का उदाहरण उपस्थित करद कि प्राचीन काल की भांति आज भी जैनी गृहस्थ सुलताभ करके परभव सुधारने के लिये सयम का पालन कर सकते हैं। वर्तमान में जो कुछ भी ऐसे सयमो पुरुष है उनका प्रयम कर्तव्य है कि वह अपनी आत्मोन्नति करने के साथ ही साथ पंचायुक्तों का प्रचार समाज में करे और त्याग भाद के महत्व को समाज के अधिक्क्यी पुरुषों को समझा कर उन्हें इस संयम मार्ग पर लेनावें । ऐले संयमी पुरुष यदि प्रत्येक प्रान्त में प्राधी २ दर्जन भी हो जाये तो जैन धर्म के यथार्थ भान को जैनी समसजावे और उसका पालन वे लोक पीटने की भॉति न करें। प्रत्युत उसको अच्छी तरह समझ कर वे अपने जीवन धर्ममय बनालें । उनके जीवन यदि वास्तविक धर्ममय बन जायेंगे तो उनकी उन्नति होने में देर नहीं लगेगी। श्रतएव इस प्रथम कारण को पूर्ति करना परमावश्यक है।
SR No.010243
Book TitleJain Jati ka Hras aur Unnati ke Upay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherSanyukta Prantiya Digambar Jain Sabha
Publication Year
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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