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________________ (7) 1 हो । फिर श्रात्मोन्नति के उपरान्त वृद्धि और शारीरिक बल चढ़े चढ़े होना चाहिए। जितनी बुद्धि विकास को प्राप्त होगी उतनी ही योग्यता मनुष्य प्राप्त कर सकता है । तथापि जितना ही शारीरिक वल मनुष्य का बढ़ा होगा उतना ही अधिक श्रम कर सकेगा । और जितना ही अधिक श्रम करेगा उतना हो अधिक धनोपार्जन कर सकता है और उसे उचित रीति से व्यय करके जीवन उन्नत बना सकता है । यद्यपि यह अवश्य है कि इन योग्यताओं की प्राप्ति में उस समय के देशके राज नियम और जाति के रीति रिवाज भी वाधक वा साधक होते हैं । इसलिए उन का भी समुचित होना आवश्यक है ।' श्रतपन कहना होगा कि “अन्य जातियों के सम्मुख जीवित रहने के लिये, संसार में अपना अस्तित्व रखने के लिये, मनुष्य में मनुष्य के गुण होने चाहिये । मूर्ख और बलहीन मनुष्य देश व जीति को लाभ पहुंचाने के बदले हानि पहुंचाते है श्रीद सुयोग्य बनने के लिये पैतृक ओर सामाजिक संरकार की शुद्धता, श्राचरण या चरित्र की पवित्रता, निर्मल जल, शुद्ध वायु, पुष्टिदायक भोजन, स्वच्छ हवादार मकान, इन्द्रिय निग्रह, स्वास्थ्य रक्षा और उत्तम चिकित्सा शास्त्र का ज्ञान, सर्व प्रकार की विद्या और सर्वोपरि वातन्त्रता की परम आवश्यक्ता है ।" (देखी देशदर्शन पृष्ठ ६-७ ) । हमारे पूर्वजों मैं यह सर्व गुण श्रवश्य ही थे। तब ही वह इतना उन्नत जीवन विता सके थे कि श्राज भी उनकी गुण गरिमा संसार के नेत्रों को धुंधिया रही है। किंतु क्या कारण कि हम उनकी संतान इन गुणों को खो बैठे है । और श्रवनत हेय-लजा मय जीवन व्यतीत कर रहे हैं ? सभव है कि मेरे कोई मित्र इस पर कहें कि अब ज़मानो
SR No.010243
Book TitleJain Jati ka Hras aur Unnati ke Upay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherSanyukta Prantiya Digambar Jain Sabha
Publication Year
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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