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________________ ( ७ ) लौकिक जीवन उन्नत बनाने के लिये सम्पत्ति मुख्य मानी गई है । सो जहाँ धर्म वहाँ यह अवश्य होना चाहिये । और वस्तुतः प्राचीन जैनजाति में यह थी ही । इस के विना संसार में गृहथों का कालक्षेप करना कठिन है । सम्पत्ति और मनुष्य में नि सम्बन्ध है । मनुष्य की उन्नतिव्यक्तिगत, सामाजिक या राष्ट्रीय-सम्पत्ति के उचित प्रयोग पर निर्धारित है, श्रीर साथ ही सम्पत्ति की उत्पत्ति मनुष्य की उत्तमता शारीरिक, मानसिक और चारित्रक ( Moral ) पर निर्भर है। जिसमें जितनी योग्यता है वह उतना ही सम्पत्तिमान् होता है । सुयोग्य अयोग्य से अधिक सम्पत्ति सञ्चय करके प्रति दिन उन्नत बनता जाता है । और अयोग्य सम्पत्ति हीन हो कर अवनति के गहरे गढ़ में गिर जाता है । सुयोग्य सम्पत्तिमान और श्रीमान बनता है । और योग्य क्षीण हीन होकर मर मिटता है। दूसरे शब्दों में यही बात यों कही जा सकती है. कि. श्रधिक सम्पत्तिमान अधिक सुयोग्य धन सकता है । सम्पतिमान जीना है और सम्पत्ति हीन की मृत्यु होती है । (देखो देश दर्शन पृष्ठ २ ) । हमारे पूर्वजों में साधु साध्वीयों की देखभाल मैं सम्पत्ति संचय करने की योग्यता प्राप्त थी और वह उनकी शिक्षा दीक्षा में उसका उचित प्रयोग भी करना जानते थे। यही कारण था कि उनके जीवन उन्नत थे । परन्तु श्राज इन सव वातका लोप है। वेताम्बर समाज में किंचित साधुर्थो कीदेख रेस श्रावकों पर है और उनमें सम्पत्ति भी अधिक है। योग्यता प्राप्त करने में पुण्यमय कारण का समागम विशेष सहायक है । " योग्य मनुष्य के खास गुणों पर विचार करने से कहना होगा कि पहिले तो उनका जीवन धर्ममय होना चाहिये, जिस सेमिक बल की वृद्धि हो और मानसिक एकाग्रता प्राप्त
SR No.010243
Book TitleJain Jati ka Hras aur Unnati ke Upay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherSanyukta Prantiya Digambar Jain Sabha
Publication Year
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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