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________________ * जैन जगती "అదేం లిస్టు కొని అదర లో * प्रतीत खण्ड किस भाँति छूताछूत को इस भाँति से वे मानते; नर-जाति के प्रति मनुज को जब थे सहोदर जानते । अज आत्म-सरवर की अहो ! सब वे मनोहर मीन थे; उनमें परस्पर प्रेम था, आध्यात्म-शिखरासीन थे ॥ ३७६ ॥ इन वर्ण, आश्रम, वेद की किसने कहो रचना करी; कितनी मनोहर भाँति से लेखो समस्या हल करी । इस कार्य को श्री नाभि-सुत 33४ ने था प्रथम जग में किया; वह था प्रथम, अब अंत है, क्या अन्त कर खोटा किया ? || ३८० ॥ यवन - शासक --- राजत्व यवनों का कहें कैसा रहा इस देश में; ऐसा कि जैसा पोप का यूरोप के था दोष किसका था अशुभ फल यह क्या भोगना पड़ता नहीं दुष्फल किये था देश में | हमारे कर्म का; दुष्कर्म का ।। ३८१ ।। राजत्वभर ये यवनपति हा ! प्रारण के ग्राहक रहे; ये गौ, बहू, सुत, बेटियों का थे हरण करते रहे । तलवार के बल हिन्दु थे इस्लाम में लाये गये; आये न जो इस्लाम में बेमौत वे मारे गये || ३८२ ॥ धन द्रव्य पर उनके लगे रहते सदा ही दांत थे, बिछड़े हुआ के रात के मिलते न शव हा ! प्रात थे ! हा ! दूधपीते शिशु गणों का वह रुदन देखा न था; नरभूष था, यमभूप या, हमने उसे लेखा न था ॥ ३८३ ॥ ७७
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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