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________________ जैन जगती है * अतीत खण्ड Veecaste जितराग थे, जितद्वेष थे, क्यों क्रोध हमको हो भला; कोई न हम में से कभी था रण-प्रथम करने चला। अब खैर ! सब कुछ हो गया, अब ध्यान आगे का करो; जैसे बने फिर देश का उत्थान सब मिलकर करो ॥ ३६४ ।। वैदमत, बौद्धमतश्रुति वेद को जिनधर्म का ही बन्धु हम हैं मानते; इच्छा तुम्हारी आपकी यदि भिन्न तुम हो जानते । साहित्य के ये दीप हैं, शुचि प्रखरतर मार्तण्ड है; आलोक इनका प्राप्त कर यह जग रहा ब्रह्माण्ड है।। ३६५ ॥ होता नहीं अवतार यदि उस बुद्ध 333-से भगवान् का; क्या हाल होता आज फिर इस चीन का, जापान का। ये हो गये अब मांसहारी, दोष पर इनका नहीं; कैसे चलें वे शास्त्र पर सिद्धान्त जब मममें नहीं ॥ ३६६ ॥ ये जैन, वैदिक, बौद्धमत मिलते परस्पर आप है; मत एक की मत दूसरे पर अमिट गहरी छाप है। हे बन्धुओ ! ये मत सभी मत एक की सन्तान हैं; ये युगजनित पाखण्ड हित को-दण्ड-सर-सधान है ।। ३६७ ।। हमारे पर दोषारोपण"जिनधर्म के कारण हुआ हत् भाग्य भारतवर्ष है; इसका अहिंसावाद से भारी हा अपकर्ष है। ये कीट तक को मारने में हिचकिचाते हाय ! हैं " क्या बन्धुओं! उत्थान-साधन मात्र खगोपाय है ? ॥ ३६८ ।। ७४
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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