SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ® जैन जगती Sct ॐ अतीत खण्ड विभु वीर ने सबके उरों में फिर दया स्थापित करी; उपसर्ग लाखों झेलकर पशु मूक की रक्षा करी। पर शान्तिमय सुख राज्य कहिये छद्म कैसे सह सके ? वे विप्र वंचित हाय ! बोलो किस तरह चुप रह सकें १ ॥३४६ ॥ तात्पर्य आखिर यह हुआ की धर्म-रण होने लगे; लड़कर परस्पर जैन, वैदिक, बोद्ध हा ! मरने लगे। जब हो हताहत गिर पड़े, ये यवन पत्थर से पड़े क्या प्राण उसके बच सकें गिरते हुये पर गिरि गिरें ? ।। ३५० ।। उस दुष्ट, पापी मनुज का जयचंद३२४ कहते नाम है; जिसके बुलाये यवन आये-घोर काला काम है। जितने मनुज आये यहाँ, थे सब हमी में मिल गये; इस्लाम-भंडे पर हमारे से अलग ही लग गये !! ।। ३५१ ॥ इनकी हमारी फूट का हा! यह कुफल परिणाम है; जो स्वर्ग-सा यह सौम्य भारत मिट रहा अविराम है। जैसे परस्पर मेल हो करना हमें वह चाहिए; सब भेद-भावों को भुला कर रस बढ़ाना चाहिए ॥ ३५२ ॥ हा ! हाय ! भारत ! आज तेरे खण्ड कितने हो गये; ये धर्म जितने दीखते, हा! अंग उतने हो गये। प्रति धर्म के अन्दर अहो ! फिर सैकड़ों फिरके बने फिर गोत्र, जाति, सुवर्ण के हा ! चल पड़े विग्रह घने ॥ ३५३ ।।
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy