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________________ जैन जगती, RECENTREE * अतीत खण्ड वंदित्तु २९८ से इनके उरों का सब पता लग जायगा; व्यवसाय जप, तप, धर्म का सबका पता मिल जायगा। निःराग हैं, निद्वेष हैं, निष्कलेश ये नर नारि हैं; उपकारकर्ता मनुज के उपकृत सभी नर नारि हैं ॥ २६ ॥ मन्दिरों का वैभवये रव्युदय के पूर्व ही हैं देव-मन्दिर खुल गये; ये ईश के दरबार में सरदार आकर जम गये । आह्लादकारी घोष घण्टों का गगन में छा रहा; हैं भक्तजन के कण्ठ से संगीत जीवन पा रहा ।। २६० ॥ है मन्दिरों का ऐश-वैभव स्वर्गपुर से कम नहीं; नर्तन कहीं सुर-नर्तकी का, गान कण्ठो का कहीं। रवि चन्द्र का भी मान-मर्दन दीप माला कर रही; है भक्तगण के कीर्तनों से गूंजती मण्डप-मही ।। २६१ ॥ सम्राट सम्प्रति चैत्य-वन्दन कर रहे हैं लेख लो; सामन्त पूजा कर रहे हैं भक्ति पूर्वक पेख लो। वन्दन सुदर्शन२९९ श्रेष्ठि सुत हैं शिर झुका कर कर रहे; श्रावक, श्रमण सब वन्दना कर लौट कर हैं जा रहे ॥ २६२ ॥ इन मन्दिरों से प्राण अब तक धर्म हैं पाते रहे। मस्जिद, मकबरे और गिर्जागृह यही बतला रहे। पर आज के हा ! सभ्य जन इनको मिटाना चाहते; ये बाँध ग्रीवा में उपल हैं डूब मरना चाहते ॥ २६३ ॥
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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