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________________ जैन जगती Recenter ॐ अतीत खण्ड गणना हमारी मोहरों पर आज तक होती रही। दश, पाँच, द्वादश, बीस कोटी-ध्वज हमें कहती रही; निर्धन हमारे सामने वर सार्वभौमिक भूप था; वे दिन दिवस थे भाग्य के, यह दीन का नहिं रूप था ॥ २६ ॥ वर शाह २८७ हममें पाठ चौदह ख्यात नामा हो गये; जिनके यहाँ सम्राट बंधक 'बादशाहो' रख गये । लगता हमारे नाम के पहले अतः पद शाह का; सम्राट के पद 'बाद' के भी बाद लगता 'शाह' का ॥२७०॥ आनन्द-से२८८, सद्दाल-से २८९ अलकेश हममें हो गये; महाशतक२९°चुल्लणीशतक२९१ गोपाल गोपति हो गये। २९२ २१३ २९४ २९५ जिनदत्त, धन्ना, शील, जगडूशाह कैसे शाह थे ? उपकारमय था द्रव्य जिनका, दीन की ये राह थे ।। २७१ ॥ जब देखते हैं भूत-वैभव, निकल पड़ते प्राण हैं; उस रिद्धि के यह सामने समृद्धि सब म्रियमाण हैं। पाश्चात्य जन के अभिमतों पर हाय ! हम इठला रहे; हम देश के त्रय भाग धन के स्वामि हैं कहला रहे ॥ २७२॥ थोथी प्रशंसा का कहो क्या अर्थ होना चाहिये ? गिरते हुए को हाय! कैसे 'धन्य' कहना चाहिये ! लक्षाधिपति उस काल में यों गण्य होते थे नहीं; इन अाज के कोटीश सम उस काल के थे दीन ही ॥२७३ ।।
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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