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________________ जैन जगती ॐ अतीत खण्ड हम हो दिगंबर फिर रहे थे पुर, नगर, हर ग्राम में; यों नग्न कोई फिर सके जाकर नगर अभिराम में ? हम आज वैसे हैं नहीं, फिर भी दिगंबरवाद है; जिनराज की जय बोल दो, पाखण्ड जिंदावाद है ।। २५६ ॥ श्रीमन्त व व्यापार व्यापार भारतवर्ष का था विश्व भर में हो रहा: संसार के प्रति भाग में था वास भारत कर रहा। हम वैश्य मृत व्यापार से ही आज तक विख्यात थे; हैं गिर गये, पर उस समय व्यापार में प्रख्यात थे ॥ २६० ॥ संसार भर में घूम कर व्यापार हम थे कर रहे; सर्वत्र जल-थल-व्योम-वाहन थे हमारे चल रहे । थे यान भारतवर्ष से सब अन्न भर कर जा रहे; मरकत, रजत, मणि, हेम से विनिमय वहाँ हम कर रहे ।। २६१ ।। व्यापार से परिचय परस्पर थे हमारे बढ़ रहे; सौहार्द, ममता, प्रेम हम में उत्तरोत्तर जग रहे । लगने लगा था विश्व कुल, भ्रातृत्व जग में जग रहा सम्बन्ध कन्या-ग्रहण का भी था परस्पर बढ़ रहा ।। २६२॥ व्यापार में हम से बढ़ा था दीखता कोई नहीं; जिस ग्राम में हम थ नहीं, वह ग्राम विश्रत था नहीं। सर्वत्र हो संसार में हाटें हमारी खुल रहीं; सर्वत्र क्रय थे बढ़ रहे, विक्री अतुल थी बढ़ रही ।। २६३ ।। १३
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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