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________________ * जैन जगतो * 1666 * अतीत खण्ड रण-क्षेत्र २७ में भी पहुँच कर गल बाँह देकर मिल रहे; थे रोकने को रक्त - निर्भर यत्न भरसक कर रहे । दोनों परस्पर युद्ध पति करते कभी द्वौ ओर के; इस भाँति के प्रस्ताव से कटते न दल द्वौ ओर के ॥ २३६ ॥ आवेश हममें था नहीं, यह विश्व क्या नहिं जानता; हमको क्षमाधर, शान्त यह जग आज भी है मानता । निर्बल सबल कहते किसे ? यह प्रश्न हम हैं पूछते; हैं घट छलकता अधभरा या मुखभरा ? हम पूछते ॥ २४० ॥ तलवार का उपयोग करना निर्बलों का काम है; हर बात में सि को दिखाना वीर का क्या काम है ? है आत्मबल जिसमें नहीं तलवार साधन है उसे; आत्माढ्य बोलो वचनसे सकता न कर हैं वश किसे ? || २४१ ॥ था युद्ध जिस दिन छिड़ गया, वह दिन प्रलय का आगया; जल, थल, अनल, पत्र, गगन में भूकंप उस दिन आगया । जल-थल नलमय हो गया, जल, थल पवनमय हो गये; जब चक्र - पाणी चक्रियों के चक्र फिरने लग गये || २४२ ॥ २४२ २४३ २४४ र, अचल, जयनाम, मघवा, भद्र-से; २३८ २३९ २४० २४ सागर, स्वयंभू, ૨૪૫ २४५ २४७ द्विपृष्ट कैसे थे बली ? त्रिपृष्ट नृप बलभद्र-से ! निष्कुंभ २४८ तारक २४९ - से बली अरि क्या हमारा कर सके ? २५० २५१ दर्शन, विजय बलदेव का क्या बाल बाँका कर सके ? ॥ २४३ ॥ ४ ४६
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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