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________________ ® जैन जगती Faceae अतीत खण्ड जैन धर्म का विस्तार यह जैन मत था विश्व-मत माना हुआ संसार मेंहैं चिह्न ऐसे मिल रहे कुछ ठौर, कंदर, गार में। वत्सर अनंता पूर्व ही हम दिग्विजय थे कर चुके । हा ! बहुत करके चिह्न तो अब तक हमारे मिट चुके ! ।। २१६ ।। कुछ चिह्न ऐसे हैं मिले आस्ट्रेलिया२३२ इत्यादि में; जिनसे पता चलता हमें, जग-धर्म था यह आदि में । यह भूमि भारतवर्ष इसका आदि पैतृक वास है; अतिरिक्त भारत के सभी जनपद रहे उपवास हैं ।। २२० । थे राम-रावण-से हमारे धर्म के नायक अहो ! रावण सरीखे भक्त क्या अन्यत्र जन्मे हैं कहो! सब वन्धु यादव२ 33 वंश के छप्पन कोटी जैन थे; कितने मुरारी काल में भाई हमारे जैन थे ? ॥ २२१ ।। मुख धर्म चारों वर्ण का था आदि से जिन धर्म ही; क्षात्र-मत था, विप्र-मत था, था शूद्र-मत जिन धर्म ही। अवतार इसके क्या नहीं हैं क्षात्र-कुल में से हुए ? प्राचार्य, गणधर, साधु इसके वर्ण चारों से हुए ।। २२२ ।। उन ऋषभ जिनपति को सभी हैं अन्य मत भी मानते; अवतार खलु हम ही नहीं, अवतार वे भी मानते । ये चक्रपति महिभूप थे-पुस्तक पुरातन कह रहे; जिस धर्म क हों य प्रवतक, क्यों न वह चक्री रहे ? || २२३॥ E जाति, गोत्र ।
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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