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________________ ® जैन जगती अतीत खण्ड हमारा साहित्य साहित्य-सरवर है हमारा कमल-भावों से भरा; जिसमें अहिंसा जल-तरंगें छहरतो हैं सुन्दरा । शुचि शील-सौरभ से सुगन्धित हो रही है भारती, सद्ज्ञान परिमल-युक्त यह सलिलोमि करतो आरती ।। १५६ ॥ उस आदि प्राकृत में हमारा बद्ध सब साहित्य है; पर आज प्राकृत-भाषियों का अस्तमित आदित्य है! ऐसे न हम विद्वान हैं-अनुवाद रुचिकर कर सकें! जैसा लिखा है, उस तरह के भाव में फिर रख सके ! ॥१६० ॥ है बहुत कुछ तो मिट गया, अवशिष्ट भी मिट जायगा; हो जायगा वह नष्ट जो कर में हमारे आयगा! हे आदि जिनवर ! आपके ये वाक्य हितकर मिट रहें ! उद्दाम होकर फिर रहे हम, हैं परस्पर लड़ रहे ! ॥ १६१ ।। भण्डार जयसलमेर१६४, पाटणके ३५ हमारे लेख्य हैं; क्रिमि, कीट, दीमक खा रहे उनको वहाँ पर-पेख्य है। मुद्रित कराले आप हम, यह भाव भी जगता नहीं! भवितव्यता कैसी हमारी, जान कुछ पड़ता नहीं ! ॥ १६२॥ भागमहा ! लुप्त चौदह ६६ पूर्व तो हे नाथ ! कब से हो गये ! हा ! कर्म-दर्शक शास्त्र ये कैसे मनोहर खो गये ! जब नाम उनका देखते हैं, हाय । रो पड़ते विभो ! कैसे मनोहर नाम हैं ! सिद्धान्त होंगे क्या, प्रभो ? ॥१६३ ॥
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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