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________________ जैन जगती. ReceTAccc अतीत खण्ड था जाति से नहि नेह अनुचित, बन्धु से नहिं राग था; कुछ मोह माया में न था, कुछ शक्ति में नहिं राग था। हम सार्वभौमिक ऐश को जो छोड़ते देरी करें; ज्योतिष, पुरंदर, सुर हमारी किस तरह सेवा करें ? ॥१०६ ।। हमने हमारे राज्य में किस को बताओ दुख दिया; क्रिमि कीट का भी जानते हो मनुजवत रक्षण किया। क्या दण्ड से भी है कभी जग-शान्ति स्थापित हो सकी ? जलती अनल जल-धार बिन उपशाम किस से होसकी ? ॥११०॥ धन-द्रव्य नारी-अपहरण उस काल में होते न थे; संभव कहो कैसे कहे, जव पुष्प हम छून न थे। त्रियंच, मनुज, जड़ आदि में सब प्रेमयुत व्यवहार था; सब प्रेम के ही रूप थे, सब प्रेममय संसार था ॥ १११ ।। हम काल को तो कवल से भी तुच्छतर थे मानते; हम मुक्ति, सुरपद का इसे बस यान कवल जानते । यह यान था, इस पर चढ़ें हम जा रहे शिव धाम थे; कोई न हमको भीति थी, जीवन परम अभिराम थे ॥ ११२ ॥ याचक हमारे सामने जो आगया वह बन गया; सर्वस्व उसको दे दिया, कुछ वचन फिर भी ले गया। हम गिर गये थे, पर गिरे को हम उठाते नित रहे; निर्जीव को जीवन हमारे प्राण नित देते रहे ॥ ११३ ॥
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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