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________________ जैन जगती rece * अतीत खण्ड इन तीर्थ-धर्मावास की दृढ़ नोव वे हैं दे गये; आगम निगम, श्रुति, यम, नियम विस्तारपूर्वक रच गये । साहित्य जितना है रचा, उपलब्ध उतना हो नहीं; अवशिष्ट हित भी हम कहीं शायद अधूरे हो नहीं ! ॥ ४४ ॥ उन पूर्वजों की शोल-सीमा कौन कविपति गा सका ? गुणगान सागर-कूल का भी दश भर नहिं पा सका । वे थे विरति, रतिवान हम; निधूर्म वे, हम धूम हैं; वे योग थे, हम रोग हैं; वे थे सुमन, हम सूम हैं ।। ४५ ।। था चक्रवर्ती राज्य जिनका, राज्य वित्तागार था: अमरेश, व्यंतर, देव से जिनका अधिक परिवार था । ऐसे मनुज वर आज तक हम में करोड़ों हो गये; जो दान, संयम, शील के शुचि बीज जग में बो गये ॥ ४६ ॥ आदर्श जैन जो यदि जिनवर, आदि विभुवर, आदि नरवरराज थे; जो आदि योगी आदि भोगी, सुर-असुर अधिराज थे । द नायक, विधि-विधायक प्रथम जग में हो गये; श्रुति शास्त्र कहते नाभिसुत' ७ को वर्ष गणित होगये ॥ ४७ ॥ क्या आयु, संयम, शील में इनका कहीं उपमान है ? frent fear आध्यात्म में इनके बराबर मान है ? हैं कौन विभुवर अजित '", अर" से विश्व-जेता हो गये ? क्या शान्ति, संभवनाथ से जग के विजेता हो गये ? ॥४८॥ १०
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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