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________________ जैन जगती Mocope परिशिष्ट.. विशलदेव के समय उपस्थित थे। इन्होंने पंचवर्षीय दुष्काल में जो उस समय पड़ा था करोड़ों स्वर्ण-मुद्राओं का अन्न क्रय कर दानशालाएँ भोजनालय खोले थे और दीन, तुषित जनता का रक्षण किया था। १६-प्रतिक्रमण अर्थात् रात्रि में जाने, अनजाने मन, वचन और काया से किये गये, करवाये गये तथा अनुमोदित सावद्य कमों का प्रायश्चित्त, आलोचना प्रातः ब्रह्म मुहूते में जाग कर सर्व जैन आबाल वृद्ध किया करते थे। २६७-स्वाध्याय, पूजन, दान, संयम, तप एवं गुरु-भक्ति ये प्रत्येक श्रावक के दैनिक आवश्यक कर्तव्य थे। २८८-वंदित्तु-सूत्र-इस सूत्र में ५० गाथा हैं । इन गाथाओं से कर्तव्याकर्तव्य का परिचय मिलता है। २६६-सुदर्शन श्रेष्ठि-इनका वर्णन ऊपर किया जा चुका है। ३००-शाकटायन-इनका भी वर्णन ऊपर हो चुका है। ३०१-त्रयगढ़-इसको समवशरण भी कहते हैं। समयशरण की रचना स्वयं देवतागण करते थे। देखो भगवान के बारह गुण और आठ प्रतिहार्य का उल्लेख । ३०२-आनंद-नं० २८८ देखिये। ३०३-चुल्लक-नं० २६१ देखिये । ३०४-नंदिनीप्रिय-ये बनारस के रहने वाले थे। भगवान महावीर के अनन्य भक थे। ये भी १२ करोड़ स्वर्ण-मुद्रामों के पति एवं ४०००० गौओं के स्वामी थे।
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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