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________________ जेन जगतो. परिशिष्ट PARTMar समपर भरगे ताल्हण सुतन, न्याई बिहु पखि निर्मला। चितोड़ भिड ते, चोपड़े, करमचंद चादी कला ॥ जै० जा०म०प्र० चौथा। ७६-श्री नेतसी-वीरवर नेतसी छाजेड़ की भी उदारता देखिये: पवन जदि न परवरे, बाव बागो उत्तर घर । धर, मुरघर मानवी, भइ भेमंत तासभर ।। मातपुत परिहरे, विमोह मृगनेनी छारे । उदर काजि श्रापने, देश परदेश संभारे॥ खित्त, खीन, दीन व्यापी खुधा, नर नीसत सत छंडिया। तिण घोस साह जगमाल के, नेतसीह नर थंभिया ॥ जै० जा० म०प्र० चौथा। २८०-श्री अन्नदाता धर्मसी-इस श्रील महापुरुष के भी दाक्षिण्य भाव देखिये: दीपक दीदा दिसे, प्रथी पदरा परमाणें । कडलूनेर कड़ाहि, सिपति साची तुरताणे ।। इकतीसे सोमती, इला असमै आधारी। घर गुंजर घरमसी, जुगति दे अन्न जिवाड़ी। २८१-भूपाल-इस नाम से भोसवाल अब भी विश्रुत है। प्रोसवाल भूपाल क्यों कहलाते हैं यह. भारत का प्रत्येक व्यक्ति जानता है। यहाँ इस विषय को स्पष्ट करने की भावश्यकता प्रतीत नहीं होती। २८२-जब अरिहंत भगवान का समवशरण होता था तब
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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