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________________ जैन जगती, परिशिष्ट . थे और साढ़े नव पूर्व के ज्ञाता थे। धर्म-देवलोक का इन्द्र भी उनके तप, तेज को देखकर उनका परम अनुचर बन गया था।, १३७ - इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त, सौधर्म, मण्डित, मौर्यपुत्र, अकम्प, अचलाभ्राज, मेतारज और श्रीप्रभास ये ११ भगवान महावीर के गणधर थे। ये सब ही प्रकाण्ड पंडित व विद्वान थे। जैन-धर्म के सत्र शास्त्र इन ११ गणधरों ने लिपिबद्ध किये हैं। १३८-उमास्वातिवाचक-ये संस्कृत प्राकृत के अद्वितीय विद्वान थे । इन्होंने संस्कृत में ५०० ग्रन्थ लिखे हैं। 'तत्त्वार्थसूत्र' इन्हीं का रचा हुआ है । एक बार इन्होंने सरस्वती की पाषाण-मूर्ति से भी अपने श्लोकों का उच्चारण करवाया था। ___ १३६--कवि राजशेखर-ये प्राचार्य महाकवि थे। ये वि० सं० १४.५ में विद्यमान थे। इन्होंने श्रीधरकृत 'न्यायकंदली' की टीका लिखी है, तथा 'प्रबन्धामृतदीर्घिका' नाम का सात हजार श्लोकों का एक ग्रन्थ लिखा है। १४०-कुन्दकुन्दाचार्य-ये महान आचार्य विक्रम की प्रथम शती में हुए हैं। इन्होंने 'प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, समयसार, नियमसार, द्वादशानुप्रेक्षा और दर्शनप्राभृतादि प्राकृत ग्रंथ लिखे हैं । ये आचार्य अधिक प्रसिद्ध हैं। १४१-देवढीगणिक्षमाश्रमण-ये विक्रम की छठी शती में मौजूद थे। ये लोहिताचार्य के शिष्य थे। इनके समय में जैनशास्त्रों का अस्तित्व नाम मात्र को रह गया था। वल्लभीपुर में
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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