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________________ जैन जगती PRESORREG0 ® अतीत खण्ड # नभ में चढ़े का अभिपतन अनिवार्य्य क्या होता नहीं ? जो ले चुका है जन्म, क्या मरना उसे पड़ता नहीं ? यह विश्व वर्तनशील है-हम जानते सिद्धान्त हैं। बनकर अनेकों भ्रष्ट होते-मिल रहे दृष्टान्त है। संसार का जीवन-विधाता सूर्य है-जग जानता; डूबा हुआ अवलोक रवि को शोक क्या वह मानता ? डूबा हुआ है आज जो वह कल निकल भी आयगा; मुझे हुए मन-पद्म को फिर से हरा कर जायगा ।। १० ।। हा! कौन पुल में भाग्य-दिनकर अस्त तेरा हो गया ! जो आज तक तेरे गगन में फिर नहीं लेखा गया। क्यों आर्य ! अब तक सो रहे हो कामिनी-रस-रास में ? पाश्चात्य जनपद ने हरा वैभव हमारा हाँस में ।। ११ ।। कहना न होगा की सभी के प्राण-त्राता आर्य हैं; विद्या-प्रदाता-ज्ञानदाता-अन्नदाता आर्य हैं । उन्नत हुए ये देश जितने आज जग में दीखते; होती न यदि इनकी दया, ये किधर जाते दीखते ? ॥ १२ ॥ विज्ञान के वैचित्र्य से जो हो रहा अभितोष है। यह तो हमारे ज्ञान का बस एक लघुतम कोष है। नक्षत्र, ग्रह, तारे तथा इस व्योम पर अधिकार था; अपवर्ग तक भी जब हमारे राज्य का विस्तार था ॥ १३ ॥ ३
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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