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________________ जैन जगती.. 980640000 ॐ भविष्यत् खस्ट कुछ भी न चिन्ता साम्प्रतिक हम अवदशा की यदि करें; रोगी हुए जन के लिये उपवार यदि हम नहिं करेंपरिणाम होगा क्या वहाँ-क्या हो नहीं तुम जानते ? फिर क्यों न मेरे बन्धुओ ! हो बात मेरी मानते ॥१६०॥. जब तक नहीं ये जाति के सब रोग खोये जायँगे; तब तक न जीवन के दिवस चिर स्वस्थ होने पायेंगे। ये रोग हैं या ब्याल हैं, साकार तन में: काल हैं; फिर भी नही उपचार है-ऐसा भयावह हाल है !!! ॥११॥ लेखिनी तू भूत भारत गा चुकी, तू रो चुकी इह काल को; हे लेखिनी ! बतला चुकी भावी अनागत काल को। अब वेग अपना थाम ले, विश्राम ले, संतोष कर; इतनाथलं होगा प्रिये ! यदि हो गया कुछ भी असर ||१६२॥ मेरा ध्येयगाना प्रथम था ध्येय मेरा भूत भारत की मही; फिर साम्प्रतिक, भावी दशा भी वर्ण्य थीं खलु ही यहीं। अतएव कोई शब्द मुझसे हो लिखा कटुतर गया; क्षन्तव्य हूँ मैं जाति का निर्बोध बच्चा रह गया ॥१६॥ गुरु-देव-भारती कहना मुझे जो था, उसे मैं सभ्यता से कह चुका; हे भारती! तेरी कृपा से ग्रन्थ पूरा कर चुका । अपशब्द, मिथ्या, झूठ कोई लेखिनी हो लिख गई; गुरुदेव हे ! जिनराज हे ! अबला विचारी रह गई ॥१४॥ १८५
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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