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________________ *जैन जगती G * भविष्यत् खण्ड सुत-पक्ष की जैसी तुम्हें चिन्ता, सुता की भी करो; दोनों शकट के चक्र हैं, सुत तुल सुता को भी करो । जीवित रहो वह देखने दिन जब सुता पढ़ने लगे; तब देखना मृतवर्ग ही अपवर्ग-सा लगने लगे || १८० ॥ साहित्य-सेवा साहित्य सेवा शब्द मुझको तो अपरिचित-सा लगे; साहित्य के प्रति प्रेम कितना - कुत्त पता इससे लगे । मूर्खे ! सदा जीती रहो, हाँमी तुम्हारे हैं हमीं; सीखे न लिखना नाम हम, कोई न हम में है कमी || १८१ ॥ साहित्य के प्रति प्रेम उर में बन्धुओ ! जाग्रत करो; साहित्य जीवन-मंत्र है तुम जाप इसका नित करो । साहित्य स्रष्टा मनिषियों को हर तरह सहयोग दो; स्वाध्याय - शाला खोल दो सुविधा तथा मनयोग दो ॥ १८२॥ चाहे जिनेन्द्र गुलाब का तुम मान-वर्धन मत करो; करके दया श्रीमंत ! पर तुम मान-मर्दन मत करो । संतोष तुम इतना करो, उत्साहयुत बढ़ जायँगे; भण्डार पहिले ही भरे, भण्डार फिर भर जायँगे || १८३|| योजना श्री निखिल - जिनमत - वृहद् परिषद् आज हम कायम करें; छोटे बड़े अधिकार सब उसको समर्पित हम करें । वह जैन- जगती में हमारी सार्वभौमिक शक्ति हो; हम पर उसे अनुराग हो, उसमें हमारी भक्ति हो ॥ १८४॥ १८३
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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