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________________ जैन जगती . ® भविष्यत् खण्ड फिर पूर्ववत ही आपका सम्मान नित बढ़ने लगे; शासन तुम्हारा जाति पर निर्बाध फिर चलने लगे। सम्राट माने आपको अरु हम प्रजा बन कर रहें; उड़ती रहें नित धर्म-ध्वज, परमार्थ में हम रत रहें ।।१००। यति आस्वाद, रस, रति छोड़ बो, अब नेह जग से तोड़ दो; तन,मन,वचन पर योग कर अब अर्थ-संचय छोड़ दो। हो पठन-पाठन शास्त्र का कर्तव्य निशिदिन आपका; धोरी धुरंधर धर्म का प्रत्येक हो जन आपका ॥१०१।। युवक युवको ! तुम्हारे स्कंध पर सब जाति का गिरि-भार है; पोषण-भरण, जीवन-मरण युवको! तुम्हारी लार हैं । पौरुष दिखाओ अाज तुम, तुम से अड़ा दुर्दैव है। तुम देख लो माता तुम्हारी रो रही अतएव है ॥१०२।। युवको! तुम्हारे प्राण में रतिभाव आकर सो गया; सुकुमार रति सम हो गये तुम, वेष रति का हो गया । रतिभाव जब तुम में भरा, नरभाव तत्र रति में भरा; पहिचान भी अब है कठिन,-तुम युक्क हो या अप्सरा।।१०।। रस, रास,-आनंद,भोग से सम्बन्ध सत्वर तोड़ दो, व्यवसाय सारे व्यसन के करके दया अब छोड़ दो। दुर्दैव से तुम भिड़ पड़ो, भूकम्प भूमी कर उठे । बस शत्रु या तो मुक पड़े या फिर पलायन कर उठे ।।१०४॥ १६७ ।
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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