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________________ मविष्यत् खण्ड लेखनी हा ! गा चुकी है लेखनी! तू भूत, सम्प्रति रो चुको ! कर ध्यान भावी का अभी से हीन संज्ञा हो चुकी ? विस्मृत न कर व्रत लेखनी ! तुझको न व्रत क्या स्मृत रहा ? मैं क्या लिखू ! कैसे लिखू ! मुझसे न लिखते बन रहा !!! ॥१॥ लेखनी के उद्गारदिनकर दिवसहर हो गया ! रजनीश कुहुकर हो गया ! जलधर अनलसर हो गया ! मृदु वायु विषधर हो गया ! रातें दुरातें हो गई ! भाई विभो ! रिपु हो गये! आशा दुराशा हो गई ! अब धर्म पातक हो गये !!! ॥२॥ राजा प्रजारिपु हो चुके ! श्रोहंत धनपति हो चुके ! जोगी कुभोगी हो चुके ! रोगी निरोगी हो चुके ! हत् शील हा ! हत् धर्म हा ! हत् कर्म भारत हो चुका। हो जायगा जाने न क्या, जब माज ऐसा हो चुका !!! |शा अवसर कुअवसर आज है ! हा ! बुद्धि भी सविकार है ! वैशम्य, विषया-भोग, मत्सर, राग के व्यापार हैं ! सर्वत्र अंधाचार, हिंसाचार, अधमाचार हैं ! तुममें समाकर हो गये अवशेष पापाचार हैं !!! १४७
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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