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________________ जैन जगतो, * वर्तमान खण्ड कन्या कहो. बाजार में फिर क्यों न बिकनी चाहिए ? निर्मूल निधन हो रहे-क्या युक्ति करनी चाहिए ? इस पाप के विस्तार के श्रीमन्त ही अवतार हैं; श्रीमन्त संयम कर सकें-भव पार बेड़ा पार है ॥२५॥ क्या अन्य कार्याभाव में व्यापार यह अनिवार्य है ? क्या अर्थहीनों का कहीं होता न कोई कार्य है ? क्यों बेच कर तुम भी सुता को तात की शादी करो ? हा ! क्यों न तुम निर्धन मनुज मिलकर सभी व्याधी हरो ॥८६॥ होते हुये तुम युक्ति के यदि हो सुता तुम बेचते; धिक् ! धिक् तुम्हें शत वार हैं ! तुम मांस कैमे बेचते ? रे ! पुरुष का पुरुषार्थ ही कर्तव्य, जीवन धर्म है; चीर कर विपदावरण को पार होना धर्म हे ॥७॥ श्रीमन्त का ही दोष है-ऐसा न भाई ! मानना; अस्सी टका अपने पतन में दोष अपना जानना । तुम चोर हो, मकार हो, झूठे तुम्हारे काम हैं, बकाल, बणिया, मारवाड़ी ठीक हा तो नाम हैं ।। ८॥ श्रीमन्त जैसी आय तुमको हो नहीं है जब रही। श्रीमन्त की फिर होड़ करने को तुम्हे क्यों लग रही। प्रतियोगिता के जाल में चिड़िया तुम्हारी फंस गई; सब पंख उसके कट गये, वह बदन से भी छिल गई ॥८॥ ER
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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